Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


20

सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा, रसोई के कमरे में चारों ओर ढूंढ़ा, घबराहट और भी बढ़ी। फिर तो उसने एक-एक संदूक, एक-एक कोना मानों कोई सुई ढूंढ रही हो, लेकिन कुछ पता न चला। महरी से पूछा तो उसने बेटे की कसम खाकर कहा, मैं नहीं जानती। जीतन को बुलाकर पूछा। वह बोला– मालकिन, बुढ़ापे में यह दाग मत लगाओ। सारी उमर भले-भले आदमियों की चाकरी में ही कटी है, लेकिन कभी नीयत नहीं बिगड़ी, अब कितने दिन जीना है कि नीयत बद करूंगा।

सुभद्रा हताश हो गई, अब किससे पूछे? जी न माना, फिर संदूक, कपड़ों की गठरियां आदि खोल-खोलकर देखीं। आटे-दाल की हांडियां भी न छोड़ी, पानी के मटकों में हाथ डाल-डालकर टटोला। अंत में निराश होकर चारपाई पर लेट गई। उसने सदन को स्नानगृह में जाते देखा था, शंका हुई कि उसी ने हंसी में छिपाकर रखा हो, लेकिन उससे पूछने की हिम्मत न पड़ी। सोचा, शर्माजी घूमकर खाना खाने आएं तो उनसे कहूंगी। ज्योंही शर्माजी घर मे आए, सुभद्रा ने उनसे रिपोर्ट की। शर्माजी ने कहा– अच्छी तरह देखो, घर ही में होगा, ले कौन जाएगा?

सुभ्रदा– घर की एक-एक अंगुल जमीन छान डाली।

शर्माजी– नौकर से पूछो।

सुभद्रा– सबसे पूछा, दोनों कसम खाते हैं। मुझे खूब याद है कि मैंने उसे नहाने के कमरे में ताक पर रख दिया था।

शर्माजी– तो क्या उसके पर लगे थे, जो आप-ही-आप उड़ गया?

सुभद्रा– नौकरों पर तो मेरा संदेह नहीं है।

शर्माजी– तो दूसरा कौन ले जाएगा?

सुभद्रा– कहो तो सदन से पूछूं? मैंने उसे उस कमरे में जाते देखा था, शायद दिल्लगी के लिए छिपा रखा हो।

शर्माजी– तुम्हारी भी क्या समझ है! उसने छिपाया होता तो कह न देता?

सुभद्रा– तो पूछने में हर्ज ही क्या है? सोचता हो कि खूब हैरान करके बताऊंगा।

शर्माजी– हर्ज क्यों नहीं है? कहीं उसने न देखा हो तो समझेगा, मुझे चोरी लगाती हैं?

सुभ्रदा– उस कमरे में तो वह गया था। मैंने अपनी आंखों देखा।

शर्माजी– तो क्या वहां तुम्हारा कंगन उठाने गया था? बेबात-की-बात करती हो। उससे भूलकर भी न पूछना। एक तो वह ले ही न गया होगा, और ले भी गया होगा, तो आज नहीं कल दे देगा, जल्दी क्या है?

सुभद्रा– तुम्हारे जैसा दिल कहां से लाऊं? ढाढस तो हो जाएगी?

शर्माजी– चाहे जो कुछ हो, उससे कदापि न पूछना।

सुभद्रा उस समय तो चुप हो गई। लेकिन जब रात को चचा-भतीजे भोजन करने बैठे तो उससे रहा न गया। सदन से बोली– लाला, मेरा कंगन नहीं मिलता। छिपा रखा हो तो दे दो, क्यों हैरान करते हो?

सदन के मुख का रंग उड़ गया और कलेजा कांपने लगा। चोरी करके सीनाजोरी करने का ढंग न जानता था। उसके मुंह में कौर था, उसे चबाना भूल गया। इस प्रकार मौन हो गया कि मानों कुछ सुना ही नहीं। शर्माजी ने सुभद्रा की ओर ऐसे आग्नेय नेत्रों से देखा कि उसका रक्त सूख गया। फिर जबान खोलने का साहस न हुआ। फिर सदन ने शीघ्रतापूर्वक दो-चार ग्रास खाए और चौके से उठ गया।

शर्माजी बोले– यह तुम्हारी क्या आदत है कि मैं जिस काम को मना करता हूं, वह अदबदा के करती हो।

सुभद्रा– तुमने उसकी सूरत नहीं देखी? वही ले गया है, अगर झूठ निकल जाए तो जो चोर की सजा, वह मेरी।

शर्माजी– यह सामुद्रिक विद्या कब से सीखी?

सुभद्रा– उसकी सूरत से साफ मालूम होता था।

शर्माजी– अच्छा मान लिया, वही ले गया हो तो, कंगन की क्या हस्ती है, मेरा तो यह शरीर ही उसी का पाला है। वह अगर मेरी जान मांगे तो मैं दे दूं। मेरा सब कुछ उसका है, वह चाहे मांगकर ले जाए, चाहे उठा ले जाए।

सुभद्रा चिढ़कर बोली– तो तुमने गुलामी लिखवाई है, गुलामी करो, मेरी चीज कोई उठा ले जाएगा, तो मुझसे चुप न रहा जाएगा।

दूसरे दिन संध्या को जब शर्माजी सैर करके लौटे, तो सुभद्रा उन्हें भोजन करने के लिए बुलाने गई! उन्होंने कंगन उसके सामने फेंक दिया। सुभद्रा ने आश्चर्य से दौड़कर उठा लिया और पहचानकर बोली– मैंने कहा था न कि उन्होंने छिपाकर रखा होगा, वही बात निकली न?

शर्माजी– फिर वही बेसिर-पैर की बातें करती हो! इसे मैंने बाजार में एक सर्राफे की दुकान पर पाया है। तुमने सदन पर संदेह करके उसे भी दुःख पहुंचाया और अपने आपको भी कलुषित किया।

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